Wednesday, May 14, 2014

जाने किस प्यास में 
जाने किस आस में 
दिल ये बरसों 
सुलगता रहा 
व्यर्थ की भटकन 
व्यर्थ की तृष्णा 
बेहताशा दौड़ता रहा
पा लूं, पा लूं, पा लूँ
पर क्या ?
जिससे क्षुधा शांत हो
ज्वर शीतल हो
मन तृप्त हो,
भटकते भटकते निढाल हो
अकर्मना बैठ गया
फिर एक पवन का झोंका
छू कर करीब से गुजर गया
महक, सुवास आने लगी
रस घुलने लगा
रोम रोम पुलकित हो उठा
वन वन भटकता हिरन
कस्तूरी की चाह में,
आखिर कर पाया
अपने ही भीतर

_/\_ atmabhaar _/\_