Sunday, August 28, 2011

अब हमें भरमाओं न




मुद्दत लगे दिल को समझाने में
पत्थर की नगरी में जीना सिखाने में,
फूलों का हसीं नजारा दिखा, अब हमें भरमाओं न|

बरसों लग गए, मोम से जिस्म को
पत्थर की खामोश मूरत में ढलने में,
स्नेहिल नजरों से अब इसे पिघलाने की कोशिश करो न|

सावन भादों से बरसते रहे ये नैन
तब कहीं जाकर,दिल से अतीत के दाग छूटे,
अब याद हमें किसी लम्हें की दिलाओ न|

लड़खड़ाते क़दमों न, बड़ी मुश्किल से
सहारे की बैसाखियाँ छोड़ चलना सीखा है,
हाथ अपना दें, दुबारा इन्हें कमजोर बनाओ न|

रिश्तों के बोझ तले, कहीं दब गया मेरा अस्तित्व
सब कुछ खोकर ही आज यह आत्मधन पाया है,
बेड़ियाँ सब टूट गई, अब रिश्तों की दुहाई न दो|


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