Sunday, August 28, 2011


वृक्ष

गर्मियों की तपती दुपहरी हो
या सर्दियों की ठिठुरती रातें,
खुले आकाश के नीचे
सीना ताने खड़ी रहती है|

पानी का अभाव हो
या बाढ़ का अतिशय जल
खाना अपना आप बनाती है
मीठे फल हमें देती हैं|

झड जाए पुराने पत्ते तो
नए  कोंपल फिर उग आते है
हरी भरी हमेशा रहती है
शीतल छाँव हमें देती है|

फल-फूल छाँव सब पाते है
बदले में मगर क्या देते हम?
प्रकृति की देन क्या कम है
जो उसी पर अत्याचार करते हम?

अज्ञान, नासमझ पशु भी जब
पत्ते, फल खा संतुष्ट हो जाते है ,
फिर मानव होकर भी हम
इसे समूल क्यों नष्ट करते है?


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